दोसरा विश्वयुद्ध खतम भइल, तब का भइल?
🌍 परिचय
द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के बाद पूरी दुनिया की आर्थिक व्यवस्था डगमगा गई थी। यूरोपीय देशों ने युद्ध के दौरान अपने सोने के भंडार बेच दिए, जिससे अमेरिका के पास दुनिया का सबसे ज़्यादा सोना जमा हो गया। ब्रिटिश पाउंड, जो पहले अंतरराष्ट्रीय व्यापार की मुख्य मुद्रा थी, अब कमजोर हो चुका था। ऐसे समय में एक नई आर्थिक व्यवस्था की ज़रूरत थी।
इसी ज़रूरत को पूरा करने के लिए 1944 में अमेरिका के ब्रेटन वुड्स (न्यू हैम्पशायर) में एक ऐतिहासिक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस ब्लॉग में हम समझेंगे कि इस सम्मेलन में क्या हुआ, और कैसे अमेरिकी डॉलर दुनिया की सबसे बड़ी मुद्रा बन गया।
📜 ब्रेटन वुड्स सम्मेलन की पृष्ठभूमि
युद्ध से पहले ज़्यादातर देश "गोल्ड स्टैंडर्ड" अपनाते थे, यानी उनकी मुद्रा का मूल्य सोने से जुड़ा होता था। लेकिन युद्ध के समय यूरोपीय देशों ने अपने ज़रूरी खर्चों के लिए सोना अमेरिका को दे दिया। परिणामस्वरूप, अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा सोना रखने वाला देश बन गया।
ब्रिटिश पाउंड अब उतना मज़बूत नहीं था। ऐसे में यह सवाल खड़ा हुआ कि आगे से अंतरराष्ट्रीय व्यापार किस मुद्रा में होगा?
🎯 सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य
1944 में हुए इस सम्मेलन का उद्देश्य एक नई और स्थिर आर्थिक व्यवस्था बनाना था, जो:
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🌐 वैश्विक आर्थिक स्थिरता लाए
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💱 मुद्राओं की विनिमय दर को स्थिर करे
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📈 व्यापार को बढ़ावा दे
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🛠️ युद्ध के बाद पुनर्निर्माण में मदद करे
इस सम्मेलन में 44 देशों ने हिस्सा लिया, जिनमें भारत, चीन, अमेरिका और ब्रिटेन शामिल थे।
👨🏫 दो महान अर्थशास्त्री: कीन्स बनाम व्हाइट
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जॉन मेनार्ड कीन्स (ब्रिटेन) ने एक नई वैश्विक मुद्रा "बैनकॉर" का प्रस्ताव रखा।
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हैरी डेक्सटर व्हाइट (अमेरिका) ने डॉलर को केंद्र में रखकर प्रणाली बनाने की वकालत की।
अमेरिका की आर्थिक ताकत के कारण व्हाइट की योजना को मंजूरी मिली।
💵 अमेरिकी डॉलर का उदय
ब्रेटन वुड्स समझौते के अनुसार:
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डॉलर को सोने से जोड़ा गया:
1 औंस सोने की कीमत 35 अमेरिकी डॉलर तय हुई। -
दूसरी मुद्राएं डॉलर से जुड़ीं:
सभी देशों की मुद्राएं अब डॉलर के मुकाबले निर्धारित होती थीं। -
IMF और विश्व बैंक की स्थापना:
ये संस्थाएं देशों को आर्थिक मदद देने के लिए बनाई गईं। -
स्थिर विनिमय दर प्रणाली:
देशों को अपनी मुद्रा की दर डॉलर के मुकाबले स्थिर रखनी थी।
यह सब मिलकर डॉलर को वैश्विक मुद्रा बना गया।
🇮🇳 भारत और 🇨🇳 चीन की भूमिका
1944 में:
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भारत ब्रिटिश उपनिवेश था, और उसका प्रतिनिधित्व ब्रिटिश सरकार ने किया।
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चीन गृहयुद्ध और जापानी हमलों से जूझ रहा था।
दोनों देशों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी, इसलिए उनकी भूमिका सीमित रही।
🌍 ब्रेटन वुड्स प्रणाली के प्रभाव
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🇺🇸 अमेरिका को आर्थिक लाभ: डॉलर केंद्र में होने से उसकी शक्ति बढ़ी।
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🇪🇺 यूरोप और जापान की पुनर्बहाली: IMF और विश्व बैंक की मदद से आर्थिक विकास हुआ।
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🌐 वैश्विक व्यापार में वृद्धि: स्थिर विनिमय दरों ने व्यापार को आसान बनाया।
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🇮🇳 भारत जैसे देशों की डॉलर पर निर्भरता: विकास के लिए पश्चिमी संस्थाओं पर भरोसा बढ़ा।
❌ ब्रेटन वुड्स प्रणाली का अंत
1971 में अमेरिका ने डॉलर को सोने से अलग कर दिया – इसे "निक्सन शॉक" कहा जाता है। इसके बाद दुनिया ने फ्लोटिंग एक्सचेंज रेट प्रणाली अपनाई।
फिर भी, आज भी डॉलर वैश्विक व्यापार की सबसे प्रमुख मुद्रा बना हुआ है।
ब्रेटन वुड्स समझौता विश्व इतिहास का एक अहम मोड़ था। इसने डॉलर को वैश्विक मुद्रा बना दिया और नई आर्थिक संस्थाओं की नींव रखी।
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